मैं फन्ना !
मैं फन्ना… शमा बुझ गई परवाने के जल जाने से, और हम अंधेरे से शिकवा कर बैठे.. मद्धम रोशनी से रात कट तो रही थी, हवा की दुश्मनी से ख़ुद को जला बैठे .. परवाना दूर ही रहता, ख़ुद जलने चला, आरज़ू दबा कर रखता, अगर मचलता नहीं.. मौत का ख़ौफ़ किसे , इश्क़ में बर्बाद हो चला, कहता, रूह से बँधा हूँ बदन से नहीं .. शमा का क्या है फिर से रौशन हो जाएगी, हवा का रुख़ कोई और परवाना मोड़ लाएगी.. समझाया उसे, मजबूर ना हो किसी के फुसलाने से, पर अधूरी ख्वाहिश फिर से तलब जगाएगी.. तू फ़न्ना होना चाहता है अपनी मुहब्बत पर, परवाने पर ज़माने को हमदर्दी नहीं.. सुलग कर राख होने को तैयार है, तमाशा बन जाएगा, नादान तेरे चिराग़ को तुझसे वफ़ा ही नहीं .. - श्रुति