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गुलाम..

 गुलाम रूहों के कारवां में,  जरा सी आवाज़ भी नहीं है.. उबलते दफ्न हो चुके जज़्बातो की लहर के, रेत से घिरे किनारे भी नहीं हैं.. मिटा चला जा रहा है इस जिंदगी से सिजदे यूँ, कि झुकते हुए शीश के अब निशां भी नहीं हैं.. लहू टपकता जा रहा है, मेरे आस्तीन से, देखो कहीं जमीं इसे कहीं फिर छुपा ना ले.. आखों के नीर बयां करते हैं, मेरी व्यथा, देखो कहीं फिर हम दिल में इसे दबा ना लें.. कैदी बनें हैं सदियों से अपने ही बनाए घर में, आस्मां फिर चूक न जाए, देखो कहीं छत इसे फुसला न ले.. उठो मेरे इबादत के पाश्वानों, संध्या ढलती चली है.. अनन्तकाल से दबी मुहब्बत जो तेरे दिलों में, तपिश सूरज की पुकारते थकी, बुझती चली है.. उठो कि तारीख हमारे राहगुज़र में रोज़ बदलती, फडफडाते दिए की लौं, बावली घटा से लड़कर बचती, उठो, कि उसी आरज़ू से करीना तेरी, फिर तुम्हारा नाम फलक पर ढूँढने चली है...